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जात हिन्दू, जबां उर्दू…ये हैं आशा प्रभात

जरा हट के
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बात आठ साल पुरानी है, मैं नया-नया पत्रकारिता में आया था। मेरे बेहतर काम को देख बॉस ने मुझे सीतामढ़ी जिले में ब्यूरो चीफ बनाकर भेज दिया। मैं असमंजस में था कि कैसे काम करूंगा, खैर निश्चित तिथि को पहुंच गया पर अंदर से डरा व सहमा हुआ था। यह बात किसी से कह भी नहीं सकता था, पटनावासी होने के चलते यह जिला मुझे कस्बे की तरह लगा रहा था। यहां बिजली मेहमान की तरह थी, जो कभी-कभार दर्शन दे जाती थी। अधिकतर सड़कें जर्जर थीं, एक अच्छी पुस्तक के लिए भी पटना फोन कर कूरियर से मंगाना पड़ता था। महीनों जैसे-तैसे गुजरा, किताबों का शौकीन होने के चलते कई बार मैंने उर्दू सीखने वाली पुस्तकें भी खरीदीं। पर, दिमाग घसने के बाद भी कुछ समझ में न आया। कई बार विज्ञप्ति उर्दू में आने के चलते इसके अनुवाद के लिए जानकारों से मदद लेनी पड़ती थी। इसी दौरान एक रिपोर्टर ने मुझसे एक लेखिका से मिलने के लिए कहा। मैं टाल गया, मेरे जेहन में आया कि शायद लेखिका कोई खबर छपवाना चाहती हैं। बात आई-गई, उस रिपोर्टर ने फिर आग्रह किया कि मैं लेखिका से मिलूं। उसने यह भी कहा कि वह महिला हैं, सो कार्यालय में आना नहीं चाहती। कम समय में ही मैं इस रिपोर्टर से प्रभावित हो गया था और उसकी बात को टाल नहीं सका। सो, प्रोग्राम बना पहुंच गया लेखिका के घर। चाय की चुस्की के साथ मैंने सवाल दागने शुरू किए। वे विनम्र भाव से एक-एक प्रश्न का जवाब दे रही थीं। मेरी उत्सुकता और बढ़ गई, मैंने उनकी लिखी एक-दो किताबें देखने के लिए मांगीं। उन्होंने उर्दू-हिन्दी में लिखीं कई किताबें मेरे सामने रख दीं। इससे पहले बातचीत में वे हिन्दी की जगह उर्दू शब्द का उपयोग अधिक कर रही थीं। वेशभूषा से ये हिन्दू लग रही थीं, उनकी लिखी किताब में आशा प्रभात लिखा हुआ था। मैंने आखिरकार उनका नाम पूछ ही लिया। उन्होंने नाम बताया आशा प्रभात, मैंने पास बैठे रिपोर्टर से पूछा कि क्या ये हिन्दू हैं? उसने हां कहा, ये भी कहा कि इनकी हिन्दी-उर्दू दोनों भाषाओं पर समान पकड़ है। इस दौरान आशा प्रभात दूसरे कमरे से लौट रही थीं, उनके हाथों में कई और किताबें थीं। मैं अवाक रहा गया कि दिखने में साधारण परंतु असाधारण, आशा प्रभात न सिर्फ दो भाषाओं की जानकार हैं बल्कि इनकी दर्जनों किताबें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। इन्हें कई सम्मान भी मिल चुका है। मैं अंदर से यह सोचकर खुद को कोस रहा था कि मैंने इनसे मिलने में इतना विलंब क्यों किया? मैं खुद को काफी छोटा महसूस कर रहा था। चार-चार बेटियों की शादी रचाने के बाद भी इनके कमरे में कागज-कलम और किताबें ही बिखरी नजर आ रही थीं। आशा प्रभात यानी एक अदम्य इच्छाशक्ति-जो पुरातत्ववेता बनते-बनते बन गईं कवयित्रि और कथाकार। देश के विख्यात शायर बशीर भद्र ने सीतामढ़ी अखिल भारतीय मुशायरे के दौरान कहा था कि वे सीतामढ़ी को दो कारणों से जानते हैं-एक जानकी जन्म स्थली के रूप में, दूसरा आशा प्रभात की वजह से। ये शादी के बाद सीतामढ़ी में बस गईं। हालांकि उनका बचपन पूर्वी चंपारण जिले के एक छोटा-सा संपन्न कस्बा नरकटिया बाजार में बीता। पिता की प्रेरणा से उनके मन में साहित्य का बीज प्रस्फुटित हुआ। प्रश्नों के माध्यम से वे पिता को कुरेदती और उन्हें बहुत कुछ बताने पर आमादा करती। इनके पिता हर माह दर्जनों किताबें खरीदते थे और आशा सातवीं कक्षा में ही चुपके-चुपके सब पढ़ डालती थीं। आशा ने स्कूली काल में ही रवीन्द्र साहित्य, प्रेमचन्द्र, प्रसाद अमृतलाल नागर, अज्ञेय से लेकर अधिकांश बड़े लेखकों की कृ तियों का अध्ययन कर डाला। काव्य में सुभद्रा कुमारी चौहान, माखन लाल चतुर्वेदी, दिनकर, निराला तथा नेपाली की कविताएं आशा को कुछ अधिक ही भाती थीं। किताबों में उलझे देख कई बार इनके पिता भौंचक रह जाते थे, लेकिन आशा की रुचि देख ये मौन हो जाते थे। आशा दसवें वसंत में ही अनगिनत कविताओं और गजलों का संग्रह कर चुकी थीं। तब आशा के पिता को नहीं पता था कि एक दिन नन्हीं आशा खुद कविताएं, गजलें, कहानियां तथा उपन्यास लिखेंगी। आशा का जुनून और लगन का ही नतीजा है कि उनकी रचनाओं का भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त सभी भाषाओं में अनुवाद कराया गया। आशा के लिखे उपन्यास ”धुंध में उगा पेड़” का कराची (पाकिस्तान) के स्तरीय पत्रिका मंशूर में धारावाहिक प्रकाशन 1995 में हुआ है तथा वह बहुत प्रशंसित हुआ। वर्ष 1996 में प्रकाशित इनका उर्दू, नज्मो-गजलों का संग्रह ‘मरमूज’1996 के आईएएस के प्रश्न पत्र में स्थान पा चुका है। वर्ष 1999 में इन्हें एबीआई द्वारा वूमेन आफ दी इयर अवार्ड से नवाजा गया। वर्ष 2000 में एबीआई द्वारा ही प्रोफेशनल वूमेन्स एडवाइजर्स बोर्ड के लिए इन्हें नामित किया है। आशा की प्रकाशित पुस्तकों में ‘दर्राचे’ काव्य संग्रह (हिन्दी), ‘जाने कितने मोड़’ उपन्यास (हिन्दी-उर्दू) ‘कैसा सच’ कहानी संग्रह (हिन्दी) तथा अनुवादित कहानियों का संग्रह सहित कई हैं। वहीं, ‘आज के अफसाने’ उर्दू में शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली है। आशा प्रभात को बिहार राष्ट्रभाषा परिषद पटना द्वारा ”साहित्य सेवा सम्मान”, बिहार उर्दू अकादमी पटना-खसूसी सम्मान, उपन्यास ”धुंध में उगा पेड़” के लिए प्रेमचन्द्र सम्मान व दिनकर सम्मान, दरीचे के लिए साहित्य संगम पुरस्कार और ”उर्दू दोस्त सम्मान” पुरस्कार मिल चुका है। करीब ढाई दशकों से ये आकाशवाणी व दूरदर्शन की लोकप्रिय कवयित्रि के रूप में भी विख्यात हैं। हिन्दी में साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’, ‘कादम्बिनी’ ‘गंगनाचल’, ‘हंस’, ‘आजकल’, ‘शायर’, ‘किताबनुमा’ सहित दर्जनों पत्रिकाओं में इनकी कविताएं, गजलें व कहानियां वर्षों से प्रकाशित होती रही हैं और हो रही हैं। इस बड़ी लेखिका के साथ करीब मैं एक घंटे था। इस दौरान उन्होंने कहा और मैंने सुना, जो संस्मरणों में रह गया। वर्ष 2005 में मैं मुजफ्फरपुर आ गया। परंतु इनकी किताबें आज भी मैं बड़े चाव से पढ़ता हूं। इनसे मिलने के बाद मुझे भी उर्दू सीखने का जुनून चढ़ा, जिसे आखिरकार मैंने हासिल कर लिया।

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