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दया के पात्र हैं ये ‘काहिल’

जरा हट के
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बचपन में आपने काहिलों की कहानी जरूर सुनी होगी। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि आज हर दफ्तर में काहिलों की कहानी भरी-पड़ी है। आप किसी भी सरकारी दफ्तर चाहे बैंक हो या परिवहन या फिर बिजली विभाग में जाएं और देखें-यदि किसी विभाग की कार्यक्षमता तीस है तो पांच गप्पे हांकते नजर आएंगे। वहीं, पांच का साप्ताहिक अवकाश रहेगा या फिर छुट्टी पर। यानी बीस कर्मचारियों के भरोसे पूरा दफ्तर। हर बैंक में लिखा रहता है कि यहां बेहतरीन सुविधाएं उपलब्ध हैं-यहां दो मिनट में सेविंग्स से पैसे निकालें। लेकिन क्या किसी भी बैंक में ऐसा संभव है? बैंक में यदि एक भी ग्राहक नहीं है, तो भी दो मिनट में निकासी संभव नहीं है। वजह कोई चपड़ -चपड़ पान चबा रहा होता तो कोई अमेरिका की राजनीति पर बात कर रहा होता। आप उनकी बातों को सुनकर थोड़ी देर के लिए दंग रह जाएंगे, आप सोच में पड़ जाएंगे कि उनसे कैसे कहें कि आपको जल्दबाजी है। यदि कहीं उनकी तंद्रा भंग हुई और जनाब को महसूस हुआ कि आपका काम कर देना चाहिए तो मान लीजिए कि आपका दिन शुभ है। बिहार के मुजफ्फरपुर स्थित एक बैंक के ब्रांच मैनेजर स्तर के पदाधिकारी ने बातचीत में बताया कि उनके यहां कर्मचारियों की अत्यंत कमी है, इसीलिए पेंडिंग कार्यों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। मैं चौंका तो वे मेरा चेहरा निहारने लगे फिर हंस पड़े। कहा-उनके यहां कार्यरत एक दर्जन कर्मचारी काहिल हैं। वे एक-दो काम में ही घंटों बीता देते हैं, क्योंकि उन्हें ग्राहक से ज्यादा प्रिय उनका भाषण है। ऐसे में इनसे वही काम लिया जाता है, जो तुरंत करना जरूरी न हो। मैनेजर ने ऐसे कर्मचारियों पर नाराजगी जताने के बदले हंसते हुए कहा कि ये काहिल दया के पात्र हैं। नौजवान होते हुए भी बुजुर्ग की तरह ये धीरे-धीरे काम करते हैं। इसी तरह आप रेलवे का रिजर्वेशन कराने जाते हैं तो देखेंगे कि टिकट काट रहा व्यक्ति के पास हर दस मिनट में या तो किसी का फोन आ जाएगा या फिर वह स्वयं उठकर किसी से गप्पे मारना प्रारंभ कर देगा। अपनी बारी का इंतजार कर रहे लोग मन ही मन उसे सैकड़ों गालियां देते हैं। कुछ लोग ऐसे काहिल पर आक्रोश भी उतार देते हैं तो कुछ कहते हैं कि ये दया के पात्र हैं। आंकड़े गवाह हैं कि सरकारी दफ्तरों में काहिलों की संख्या अधिक होती है। हालांकि निजी दफ्तर भी इस मामले में बहुत पीछे नहीं है। सरकारी दफ्तरों में काहिलों की संख्या अधिक होने की वजह है कि यहां एक बार किसी ने नौकरी पा ली तो तीस साल के लिए निश्चिंत हो जाता है। हालांकि निजी दफ्तरों में भी एक से बढ़कर एक काहिल भरे-पड़े हैं। परंतु इनमें अधिकतर ‘पैरवीपुत्र’ ही नजर आते हैं। इन्हें लगता है कि ये काम न भी करेंगे तो इनका कोई नुकसान नहीं कर सकता है। ऐसा नहीं है कि ये सौ फीसदी निकम्मे होते हैं, क्योंकि यदि ऐसा होता तो इनकी भर्ती ही नहीं हुई होती। ये काहिल इसलिए बनकर रहते हैं ताकि इनसे कोई अधिक काम न ले। बचे समय में ये बयानबाजी कर दूसरों को परेशान करने का काम जरूर करते हैं। इन काहिलों से सबसे ज्यादा परेशानी काम करने वाले लोगों को होती है। मेरी समझ से ऐसे काहिलों से कोई समझौता नहीं करना चाहिए। अपने दोस्त की इजाजत से एक निजी अनुभव भी शेयर करना चाहूंगा-मेरा एक मित्र है। उनके यहां मेरा हमेशा आना-जाना रहता है। मैं जब भी उनके यहां जाता हूं वे अपनी पत्नी से उलझते नजर आते हैं। मैंने मित्र को समझाया-यार क्यों उलझते हो? उसने कहा, उदाहरण देकर बताता हूं-उसने अपनी पत्नी को आवाज दी और कहा कि जरा दो प्याली चाय भेजना। तब दिन के बारह बज रहे थे। एक बजे मैंने अपने मित्र को कहा कि मुझे आफिस जाना है फिर कभी आऊंगा। उसने कहा-चाय तो पी लो। मैंने कहा-फिर कभी। क्योंकि तबतक चाय नहीं आई थी। बात मेरी समझ में आ चुकी थी कि वह पत्नी से क्यों उलझता है? मेरा दोस्त काम करने में अत्यंत फिट और फास्ट है। वहीं उसकी पत्नी इसके विपरीत। ऐसे में बात-बात पर तू-तू-मैं-मैं होना स्वाभाविक है। मेरे दोस्त की शादी के पन्द्रह साल होने जा रहे हैं, इसके बावजूद वह अपनी पत्नी को नहीं बदल सका। एक मनोचिकित्सक ने बताया कि देश में काहिलों की संख्या बढ़ रही है, यह अत्यंत चिंता की बात है। यह अलग बात है कि इसपर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। उन्होंने कुछ लोग जानबूझकर काहिल बने रहते हैं जबकि कुछ मनोरोग से ग्रसित हो काहिल हो जाते हैं।

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