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मुर्दों को भी चाहिए पैसे!

जरा हट के
जरा हट के
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कहते हैं कि मरने के बाद व्यक्ति खाली हाथ ही जाता है। सत्य है, पर शास्त्र बताते हैं कि मरनेवाले की आत्मा को तबतक शांति नहीं मिलती, जबतक उसका क्रियाक्रम ठीक ढंग से न किया जाए। बस, इसी का फायदा उठाते हैं डोम और पंडित। पंडित जी मरनेवाले परिवार से हजारों तो डोम भी सैकड़ों रुपए वसूल लेते हैं। अपनों के मरने के गम में सराबोर अनगिनत लोगों को इस आडम्बर को पूरा करने में जेवर व जमीन तक बेच देनी पड़ती है। 21वीं सदी में भी डोम श्मशान घाट का राजा बना हुआ है। बिहार की बात करें तो यहां कोई ऐसा श्मशान घाट नहीं है, जहां डोम मनमानी और रंगदारी न करते हों। यदि जेबें भरी न हों तो मृतक का शव जलाना मुश्किल नहीं असंभव है। अर्थात, मरने के बाद भी चाहिए हजारों-हजार रुपए, यानी शव…श्मशान…डोम…रुपए भी सत्य है।

प्रसंग एक : मनुष्य जीवन भर किसी व्यक्ति को चाहे कितना कष्ट क्यों न पहुंचाए परंतु उसके मरने के बाद धूमधाम से दाह संस्कार जरूर करता है। उसे डर रहता है कि कहीं उसकी आत्मा उसे तंग करना न शुरू कर दे। इस अंधविश्वास में लगभग सभी मनुष्य रहते हैं, जीते हैं। इसी का फायदा उठाते हैं डोम और पंडित। दाह-संस्कार के क्रम में पंडित जी बार-बार यह कहना नहीं भूलते कि दान में कमी होने पर मृतक की आत्मा भटकती रहेगी।

प्रसंग दो : एक हकीकत…पटना निवासी एक गरीब व्यक्ति की मौत एक माह पूर्व हो गई थी। सारे परिजन गम में डूबे थे। यहां कोई बुजुर्ग नहीं था। पड़ोसियों ने बताया कि मृतक को ले जाने के लिए आवश्यक सामान मंगवाना होगा। इस बीच झोले के साथ एक पंडित जी लंबे-लंबे डग भरते हुए कहीं से पधार गए। उनसे पूछा गया कि क्या-क्या मंगवाना है। इसपर, उन्होंने लंबी-चौड़ी सूची परिजनों को थमा दी। सामान आने के आद मृतक को जलाने के लिए गुलबी घाट पर ले जाया गया। पता चला कि पहले रजिस्ट्रेशन होता है। इसकी व्यवस्था सरकार की तरफ से की गई है, राशि भी कम लगती है। खैर, रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया पूरी करने के बाद परिजनों ने जलाने के लिए लकड़ी खरीदे। इसके बाद लकड़ी सजाने वालों से शुरू हुआ मोल-तोल। वह हजार के नीचे बात ही नहीं कर रहा था। इस परिवार के सदस्य एक-दूसरे से फुसफुसा रहे थे कि पैसे कहां से आएंगे? खैर घाट पर आए एक पड़ोसी से उधार लेकर इसकी भी व्यवस्था हुई। तबतक घाट का डोम लंबे-लंबे पग भरता पहुंचा। पंडित जी फुसफुसाए आग देने के लिए डोम ही दियासलाई जलाता है। डोम से कहा गया कि ‘भैया मेरे’ जरा दियासलाई जला दीजिए। डोम भड़का और कहा-पहले बीस हजार निकालो। परिजन भौंचक-उन्हें लगा कि बीस रुपए मांग रहा है। मृतक के एक बेटे ने दस-दस के दो नोट निकालकर डोम को दिए। डोम ने दोनों रुपए जमीन पर फेंक दिए और ‘गरजा’ भीख दे रहो हो क्या? वह आप से अब ‘तुम’ पर उतर गया था। इसी बीच एक अन्य मृतक की लाश पहुंची, जिसे देख उसकी आंखें चमकने लगीं। वह भागता-हांफता वहां पहुंचा। इस शव के साथ आनेवाले परिजन कुछ मालदार दिख रहे थे। इधर, चिता सजाये परिजन सोचने लगे कि अब शव कैसे जलाएं। पंडित जी फिर फुसफुसाये, दो हजार में पट जाएगा। परिजन बोले कहां से लाए इतने रुपए, खुद दियासलाई जला लेंगे। पंडित जी बोले, ऐसा अनर्थ न कीजिएगा। आत्मा भटकती रहेगी, आपलोग चैन से जी नहीं पाइएगा। इसके पश्चात यहां आए सभी पड़ोसियों से उधार लेने का सिलसिला शुरू हुआ। जीवन में कभी उधार न देनेवाले भी दो सौ उधार दे दिए। इस तरह दो हजार जमा किए गए। हजार विनती और हाथ-पैर जोडऩे के बाद डोम ने माचिस जलाई। सभी परिजन जाड़े में भी पसीने-पसीने हो गए। यह सोचकर कि क्या शव को जलाने के लिए भी इतनी मिन्नतें करनी पड़ती हैं। पुन: अगले दिन पंडित जी कई पन्ने की लिस्ट थमा दी। इसे पूरा करने में परिजनों को हजारों रुपए खर्च करने पड़े। किसी ने जेवर बेच डाले तो किसी ने उधार लिए। परंतु पंडित जी के बताये सारे पूजा-पाठ करवाए। यह सोचकर कि कहीं उनके अभिभावक की आत्मा न भटके।

प्रसंग तीन : सरकार को यह कानून तो बनाना ही चाहिए कि शव जलाने में इस तरह की सौदेबाजी न हो। घाटों पर चल रहे डोम के रंगदारी को खत्म करने की दिशा में कभी कोई कदम नहीं उठाया गया। माना कि धनी लोग अपनी इच्छा से लाखों खर्च कर देते हैं। परंतु वे कहां जाएं और किससे फरियाद करें, जो अत्यंत गरीब हैं। श्मशान घाट पर पूरी तरह डोम का वर्चस्व है।

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