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अहंकार ने हराया, स्वार्थ ने डुबोया

जरा हट के
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इतिहास गवाह है कि अहंकार रावण का भी नहीं रहा। सच भी है-लोग मानते भी हैं-स्वीकारते भी हैं। बावजूद भूल पर भूल करते हैं। कम ही लोग होते हैं, जो लक्ष्मी-सरस्वती के दर्शन के बाद भी सामान्य रह पाते हैं। वर्ना, अहंकार में चूर लोग खुद को औरों से अलग समझने लगते हैं। यहीं से शुरू होता है पतन का रास्ता। क्यों हम पतन का रास्ता चुनें? क्यों यह मानें कि मृत्यु व दुख से हम परे हैं? इसी तरह की भूल ने राजद सुप्रीमो को आज कहां से कहां पहुंचा दिया। यह बात किसी से छिपी नहीं है। मीडिया के सामने गरजने वाले राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद, आज मुंह छुपा रहे हैं। इसका जिम्मेदार कोई और नहीं खुद लालू ही हैं। अहंकार ने इन्हें गए लोकसभा में हराकर 4 सीटों पर लाकर खड़ा कर दिया। यूं कहें कि हरा दिया तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, वहीं इनके स्वार्थ ने बिहार विधानसभा चुनाव 2010 में 22 सीटों पर लाकर खड़ा कर दिया। यानी पूरी तरह डुबो दिया। 1993 में लालू भगवान की जय के नारे लगते थे और वे मुग्धभाव में सुनते रहते थे। यही नहीं, उन्होंने खुद को राजा तक कहना शुरू कर दिया था। खुद को वे भगवान कृष्ण का वंशज मानने लगे थे। अच्छे दिनों में इनके मुंह से आग निकलती थी। आज लालू प्रसाद की धर्मपत्नी और बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी दो-दो जगहों से चुनाव हार गईं, यह कोई मामूली बात नहीं है। 2004 के विस चुनाव परिणाम आने के बाद लालू चाहते तो लोजपा सुप्रीमो की मदद से सरकार बना सकते थे। लेकिन ये इस बात पर अड़े रहे थे कि राबड़ी देवी ही मुख्यमंत्री बनेंगी। तब रामविलास पासवान की जिद थी कि कोई मुसलमान मुख्यमंत्री हो। इस जिद ने बिहार को फिर चुनाव की भट्ठी में झोंक दिया। पुन: 2005 में नीतीश सरकार सत्ता में आई और शुरू हो गया लालू का पतन। हालांकि, पतन की ओर लालू ने उसी दिन चलना शुरू कर दिया था, जब चारा घोटाले में जेल जाने से पूर्व राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया। इन्हें राजद के किसी नेता पर भरोसा नहीं था। या यूं कहें कि किसी हालत में सत्ता को खोने का रिस्क नहीं उठाना चाहते थे। इनका साथ दे रहे और भाई बनने का स्वांग रच रहे लोजपा सुप्रीमो रामविलास भी आज हाशिये पर चले गए हैं। इन्हें इस चुनाव में महज तीन सीटें मिली हैं। बीस साल पहले लालू यादव को प्रचंड जन समर्थन मिला था, लेकिन वह सत्ता के मद में चूर थे। इनकी राजनीति जाति-धर्म पर केन्द्रित होकर रह गई थी। पूरे परिवार को विधायक-सांसद बना दिया था। बिहार की सड़कों पर अंधेरे में लोगों का निकलना दूभर हो गया। अपहरण ने उद्योग का रूप ले लिया था। राजद का कौन नेता कब किसे चोट पहुंचाएगा-कहना मुश्किल था। नतीजन, 1990 के दशक में अपराजेय माने जाने वाले लालू प्रसाद आज अस्वीकार्य हो गए। जदयू-भाजपा को 2010 के विस चुनाव में 206 सीट मिलना लालू को किसी भी हालत में स्वीकार नहीं। वे इस बात को पचा नहीं पा रहे हैं। 24 नवंबर 2010 की मतगणना के बाद अब तक लालू प्रसाद खुलकर कुछ भी नहीं बोले हैं। जदयू-भाजपा की बयार ने विपक्ष को ही साफ कर दिया। संविधान कहता है विपक्ष का नेता के लिए दस फीसदी सीट होना आवश्यक है। मगर राजद के पास सिर्फ 22 सीटें ही हैं। हां, राजद-लोजपा गठबंधन मिलाकर 25 सीटें पूरी हो जा रही हैं। लालू प्रसाद अब भी यदि अहंकार में चूर रहे तो आने वाले समय में इनका राजनीति अस्तित्व ही मिट जाएगा। नीतीश सरकार ने भी यह भांप लिया है कि जनता अब जाग चुकी है। उसे आश्वासन नहीं रिजल्ट चाहिए-वो भी फौरन। इसलिए वक्त यदि आपको ऊंची कुर्सी पर बिठाती है तो उसकी इज्जत कीजिए। अहंकार तो कतई नहीं, वर्ना कुर्सी कहां पटकेगी कहना मुश्किल है। वक्त ने यदि पावर दिया है तो उसका सही इस्तेमाल कीजिए।

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