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मजदूर दिवस : इनकी आंखों से टपकते हैं ‘खून’

जरा हट के
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कहते हैं दुख के बाद सुख जरूर आता है। मगर, मजदूरों पर यह लागू नहीं होता। क्योंकि, देशभर में करोड़ों ऐसे मजदूर हैं जिन्होंने कभी ‘सुख की धूप’ नहीं देखी। जिन्होंने कभी एसी कार व ट्रेन में यात्रा नहीं की। जिन्होंने दूर से ही हवाई जहाज को उड़ते देखा। इनकी हर सुबह अमावस की काली रात है। पीढ़ी दर पीढ़ी मजदूरी-बच्चे भी जन्म लेते ही ईंट ढोने की खटखट से आनंदित होते हैं और रोते-रोते चुप हो जाते, फिर सो जाते। फिर बच्चे बड़े होते हैं और बाल मजदूर बन जाते। सरकारी कानून कहता है-बच्चों से मजदूरी कराना जुर्म है। मजदूर दिवस पर होने वाली बैठकों में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री जोरदार भाषण में बाल मजदूरों से काम न लेने की बात कहते हैं। इसके विपरीत सच्चाई किसी से नहीं छिपी है। हर दस घर में एक बाल मजदूर काम करता मिल जाएगा। बड़े अधिकारियों के यहां तो इनकी संख्या भी कई होती है। यदि सरकार वास्तव में कड़ा कानून बना दे तो महज एक साल में कोई बाल मजदूर किसी घर में नहीं दिखेगा। फिर आजादी के दशकों बाद भी इसका निदान क्यों नहीं? हमारी गति कितनी सुस्त है, हम कितने लेजी हैं, यह विचारणीय है दिल से भी, दिमाग से भी। मनरेगा के तहत मजदूरों को गारंटी के साथ मजदूरी देने की बात भी सामने आई। इसमें भी बिचौलियों ने अपनी पैठ मजबूत कर ली। मनरेगा यदि सभी मजदूरों को रोजगार देती तो फिर हर शहर के हर चौक-चौराहे पर मजदूर बिकने क्यों आते? उत्तर बिहार के कई मजदूरों से जब मजदूर दिवस के बारे में पूछा गया तो वे चौंक गए-सामूहिक रूप से जवाब ‘इ का हय, इससे का फायदा बा’। बिहार-उत्तर प्रदेश के मजदूरों को देखकर लगता है कि वे किसी रोग से ग्रसित हैं? वजह साफ है कि मेहनत के बदले इतनी मजदूरी भी नहीं मिलती कि उनका पेट भर सके। झुग्गी-झोपड़ी या फिर फुटपाथ पर सोना और दिनभर मजदूरी। गाल पचके…आंखों में कोई सपना नहीं। इनकी आंखों से पानी के बदले रोज टपकते हैं बेबसी के ‘खून’। अब उन पढ़े-लिखे मजदूरों के हालात पर भी गौर करना जरूरी है, जो निजी संस्थाओं में काम करते हैं। कर्मचारी या कर्मी, बाबू या क्लर्क-पुकार के कई नाम। थोड़ी इज्जत देनी हो तो कभी ‘सर’ कह दीजिए-ये गद्गद् हो जाएंगे। ढाई साल पहले मंदी से पूरी दुनिया कांप उठी थी और निजी कंपनियां अपने कर्मचारियों की छंटनी कर रही थीं तो केन्द्र सरकार ने अपने कर्मचारियों के वेतन में अप्रत्याशित वृद्धि कर दी। वजह थी-2009 में लोकसभा चुनाव। राज्यों में भी कर्मचारियों के अप्रत्याशित वेतन बढ़ गए। वहीं, निजी कंपनियों ने मंदी के नाम पर वेतन बढ़ोतरी नहीं की। इधर, मकान मालिकों ने अप्रत्याशित भाड़ा बढ़ा दिए-ये सोचकर कि उनके वेतन भी बढ़े होंगे। नतीजतन, अनेक लोग गांव की ओर प्रस्थान कर गए, वहीं अनेक तीन से दो कमरे में शिफ्ट कर गए। निजी विद्यालयों में पढऩे वाले बच्चे सरकारी स्कूलों में पढऩे लगे। केन्द्र व राज्यों सरकारों ने यह देखना उचित नहीं समझा कि कम वेतन पाने वालों पर इसका क्या असर पड़ा, पड़ रहा है। ये मजदूर पढ़े-लिखे तो हैं, मगर इनकी आंखों से भी समय-समय पर बेबसी के ‘खून’ टपकते रहते हैं। शायद 2011 का मजदूर दिवस कुछ करिश्मा कर जाए….!

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