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ये ‘माफिया’ नहीं, ‘सम्मानीय’ हैं। ‘सम्मानीय’ इसलिए, क्योंकि इनके खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं है। मगर, इनके कृत्य से पूरा शहर ‘तंगो-तबाह’ है। इनकी संख्या एक नहीं, अनेक है। ये हैं अतिक्रमणकारी, जिन्होंने सरकारी जमीनें, नालों और गरीबों के फ्लैटों पर कब्जा जमा रखा है। इनमें कुछ वैसे लोग भी हैं, जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर हैं। मगर, मजबूत संरक्षक इनकी मदद में खड़े हैं।
जी हां, अतिक्रमण के नाम पर यह ‘खेल’ सालों से चल रहा है। शहर की सभी महत्वपूर्ण सड़क के दोनों किनारे दुकानों की छज्जियां निकली हुई हैं। दुकान के चौथाई सामान सड़क पर ही सजते हैं। नालों को ढककर इसके ऊपर कहीं गुमटी तो कहीं पक्की दुकानें बना दी गई हैं। चलंत दुकानदार तो एक कदम और आगे चल रहे हैं। ये सड़क पर ही व्यवसाय करते हैं। इन्हें किसी का भय नहीं, क्योंकि शाम में इनसे एक निश्चित राशि वसूल ली जाती है। सड़क के चौथाई हिस्से पर वाहन चालक अपना हक समझते हैं। ऐसे में जाम लगता है तो दोष किसका? जाम में फंसने वाले या फिर इस माहौल को उत्पन्न करने वाले। समस्याके निदान वास्ते कई बार गंभीर बैठकें हुईं, कई मार्ग वनवे किए गए। विभिन्न चौक-चौराहों पर पुलिसकर्मी तैनात किए गए। मगर, असली समस्या का निदान नहीं निकाला गया। कहना गलत न होगा कि व्यवस्था अपनी ही जमीन को खाली नहीं करा पा रही है। कारण कई हैं- प्रशासन के वरीय अधिकारी जब भी सख्त हुए, कई संरक्षक ढाल बनकर खड़े हो गए। ये दबंग हैं, पैसे वाले और पावरफुल भी। तभी तो, मंदिर, मस्जिद और कब्रिस्तान तक की भूमि इनसे अछूती नहीं।
यह कैसे संभव है कि अवैध निर्माण या कब्जा से ‘व्यवस्था’ अनजान हो। निश्चित रूप से इस ‘खेल’ में ‘कई बड़ों’ की भूमिका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप रहती है। ऐसे में वास्तविक दोषी तो यही हैं? कार्रवाई शुरू होती है तो वोट बैंक का मामला रक्षक बनकर सामने खड़ा हो जाता है। कई केस में तो कब्जा करने वाले ही मजबूत ‘प्रहरी’ निकलते हैं। तब मामला आनन-फानन में रफा-दफा…। मगर, इनके बीच पिसती है जनता। ‘वो’ जनता, जिनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखने के लिए विभिन्न तंत्र बनाए गए हैं।
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